
धर्म नगरी काशी की हर परंपरा अनूठी है। इन्हीं में से एक है होली के त्योहार से पहले महाश्मशान में चिता भस्म से होली खेलने की परंपरा। रंगभरी एकादशी के दिन भगवती गौरा (मां पार्वती) को विदा कराने के अगले दिन यानी 18 मार्च महादेव के भक्त मणिकर्णिका घाट पर चिता भस्म की होली खेली गई। दरअसल यह परंपरा करीब 350 साल से मनाई जा रही है।
दिगंबर रूप में होती है होली
पौराणिक मान्यता के अनुसार बसंत पंचमी से बाबा विश्वनाथ के वैवाहिक कार्यक्रम का जो सिलसिला शुरू होता है, वह होली तक चलता है। महाशिवरात्रि पर विवाह और अब रंगभरी एकादशी पर गौरा की विदाई हुई। आज बाबा विश्वनाथ अपने बारातियों के साथ महाश्मशान पर दिगंबर रूप में होली खेली।
मणिकर्णिका घाट पर खेलते हैं होली
मणिकर्णिका घाट पर चिता भस्म से ‘मसाने की होली’ खेलने की परंपरा का निर्वाह पौराणिक काल में संन्यासी और गृहस्थ मिलकर करते हैं। कालांतर में यह प्रथा लुप्त हो गई थी।
देश-विदेश से पहुंचते हैं लोग
करीब 25 साल पहले मणिकर्णिका मोहल्ले के लोगों और श्मशानेश्वर महादेव मंदिर प्रबंधन परिवार के सदस्यों ने इस परंपरा की फिर से शुरुआत की तो देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग इसे देखने पहुंचते हैं।
श्मशानेश्वर महादेव की आरती के बाद शुरू हुई होली
मणिकर्णिका घाट पर श्मशानेश्वर महादेव मंदिर की महाआरती हुई। इसके बाद जलती चिताओं के बीच काशी के 51 संगीतकार अपने-अपने वाद्ययंत्रों की झंकार किया और चिता भस्म से होली खेलने का दौर शुरू हो गया।
भूत-सर्प खेलते हैं होली
बताया जाता है कि पिशाच, भूत, सर्प सहित सभी जीवों के साथ होली का उत्सव मनाते हैं। शिवरात्रि के पर्व से ही मणिकर्णिका घाट पर होली खेलने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इसके बाद चिताओं से भस्म अच्छी तरह से छानकर इकट्ठी की जाती है और फिर खेली जाती है होली।
बाबा विश्वनाथ देते हैं मुक्ति
कहा जाता है कि मृत्यु के बाद जो भी मणिकर्णिका घाट पर दाह संस्कार के लिए आते हैं, बाबा विश्वनाथ उन्हें मुक्ति दे देते हैं। यही नहीं इस दिन बाबा उनके साथ होली भी खेलते हैं।
इनको होता है शिवत्व प्राप्त
मान्यता है कि काशी नगरी में प्राण छोड़ने वाला व्यक्ति शिवत्व को प्राप्त होता है। सृष्टि के तीनों गुण सत, रज और तम इसी नगरी में समाहित हैं।